Description
भाषा और शिल्प के स्तर पर ग़ज़ल में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं; मगर एक सच तो ये भी है कि ग़ज़ल अपने आप में ही एक भाषा और शिल्प भी है। ग़ज़ल की भाषा ही उसे ग़ज़ल बनाती है या फिर नहीं बनाती। ग़ज़ल में भाषा की कालाबा़जारी आसानी से पकड़ में आ जाती है। ज्ञानप्रकाश पाण्डेय की ज़यादातर ग़ज़लों में ये भाषा बहुत चाक-चौबन्द होकर, अपने समय से संवाद करती हुई, उतरती हुई दिखती है। मेहनतकश के बदन का पसीना ही बू-ए-गुल है। ते़जतर तब्दील होते व़क्त की तमामतर प्रतिकूलताओं पर ग़ज़लकार की पैनी ऩजर और उसकी अक्काशी इन ग़ज़लों में जाबजा, भाषा की तहदारी के साथ मौजूद है।