"27 जुलाई 1972 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर ज़िले में कादीपुर तहसील के एक गाँव विजेथुआ राजापुर में मेरी पैदाइश हुई। माँ बाप ने मेरा नाम राकेश दुबे रखा। इब्तदाई तालीम मैंने गाँव के प्राइमरी स्कूल से हासिल की और इंटरमीडियट (1990) पास करने के बाद तालीम को खै़रबाद कह दिया। मैं इंटरमीडियट तक साइंस ( बायलोजी) का एस्टूडेंट था, इसलिए माँ बाप का सपना था कि मैं डॉक्टर बनूँ मगर तबीयत में साज़ ओ आहंग का जादू अपना असर घोल चुका था। मै मौसिक़ी सीखकर ग़ज़ल गायकी की तरफ़ माइल हुआ और ग़ज़ल गायकी के इस शौक़ ने मुझे उर्दू शेर ओ अदब के क़रीब किया। ज़बाने तालिब इल्मी ने और तुकबन्दी के शौक़ ने शेर कहने का सलीक़ा अता किया। 2002 से मै बाक़ायदा शेर कहने लगा और अपनी ग़ज़लों पे जनाब ज़ुबैर गोरखपुरी से मौक़ा बेमौक़ा मशवरा करता रहा।
'ग़ज़ल पारा' वैसे तो मेरा दूसरा शेरी मजमुआ है मगर मेरा पहला शेरी मजमुआ 'लफ़्ज़ पत्थर हो गये' के उन तमाम ग़ज़लों पर मैंने फिर से तबाअ आज़मायी की है, इसलिए इसे मेरा पहला शेरी मजमुआ तसव्वुर किया जाये।
मैं सोचता हूँ तो मुझे एक ख़्वाब सा लगता है कि ग़ज़ल की शायरी मुझे इस क़दर दीवाना बना देगी और शेरो अदब की दुनिया में मेरी इस क़दर पज़ीराई होगी, ये मेरे वहम ओ गुमान में भी न था। अब मुझे बहुत मसर्रत होती है कि इसी ग़ज़ल की शायरी की वजह से मेरी एक मुन्फ़रिद पहचान बन रही है।"
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