राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( RSS ) का मुख्यालय जहाँ स्थित है वोनागपूर ( महाराष्ट्र की उपराजधानी ) मेरा जन्म स्थान है! व्यक्ति जिस किसी शहरया गाँव में अपना बचपन और युवावस्था बिताता है उस शहर से उसका जो लगाव होताहै,वो फिर बाद में जीवन के किसी अवस्था में आए अन्य शहरों से,चाहे वो शहर कितनेहीआधुनिक क्यों न हो वो लगाव नहीं हो पाता। नागपूर शहर के संघ मुख्यालय परिसर ‘महल’ में मैंने अपना बचपन व्यतीत किया, मेरा महाविद्यालयीन जीवन भी इसी शहर से शुरू हुवा,BA स्नातक की पदवी प्राप्तकरने के उपरांत, मुंबई और पुणे से मैंने कई विविध विषयों में शिक्षा प्राप्त कीलेकिन नागपूर से जो लगाव है वो मै केवल एक ही वाक्य में बयाँ कर सकती हूँ – ‘फ़िलहाल मैं जिस शहर में वास्तव्य कर रही हूँ वो मेरा शरीर हैऔर नागपूर मेरीआत्मा है! ‘ इस शहर ने मुझे पहचान दी, रिश्ते दिये,समझ दी, वजूद दिया, ज़िन्दगी से मेरी पहचान कराई! बाक़ी तो रिश्ते सिखाते गए,ज़िन्दगी सिखाती गयी -औरों के लिखे शब्दों के ज़रिये औरों के अनुभव पढ़ते-पढ़ते, कब लोगों के चेहरे, उनकी आँखे, उनकी देहबोली पढ़ने लगी याद नहीं, शायद किशोरावस्था से, शायद ज़िन्दगी अपनी कहानी बताने लगी तब से और फिर महसूस किया, मौन से प्रभावशाली तो कुछ भी नहीं हो सकता, शब्द भी असहाय होते हैं! काश ये मौन मेरे शब्दों में समाँ जाये तो,तो शायद मेरे शब्द कुछ मायने रखेंगे!
-आयुषी मोहगांवकर
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ( RSS ) का मुख्यालय जहाँ स्थित है वोनागपूर ( महाराष्ट्र की उपराजधानी ) मेरा जन्म स्थान है! व्यक्ति जिस किसी शहरया गाँव में अपना बचपन और युवावस्था बिताता है उस शहर से उसका जो लगाव होताहै,वो फिर बाद में जीवन के किसी अवस्था में आए अन्य शहरों से,चाहे वो शहर कितनेहीआधुनिक क्यों न हो वो लगाव नहीं हो पाता। नागपूर शहर के संघ मुख्यालय परिसर ‘महल’ में मैंने अपना बचपन व्यतीत किया, मेरा महाविद्यालयीन जीवन भी इसी शहर से शुरू हुवा,BA स्नातक की पदवी प्राप्तकरने के उपरांत, मुंबई और पुणे से मैंने कई विविध विषयों में शिक्षा प्राप्त कीलेकिन नागपूर से जो लगाव है वो मै केवल एक ही वाक्य में बयाँ कर सकती हूँ – ‘फ़िलहाल मैं जिस शहर में वास्तव्य कर रही हूँ वो मेरा शरीर हैऔर नागपूर मेरीआत्मा है! ‘ इस शहर ने मुझे पहचान दी, रिश्ते दिये,समझ दी, वजूद दिया, ज़िन्दगी से मेरी पहचान कराई! बाक़ी तो रिश्ते सिखाते गए,ज़िन्दगी सिखाती गयी -औरों के लिखे शब्दों के ज़रिये औरों के अनुभव पढ़ते-पढ़ते, कब लोगों के चेहरे, उनकी आँखे, उनकी देहबोली पढ़ने लगी याद नहीं, शायद किशोरावस्था से, शायद ज़िन्दगी अपनी कहानी बताने लगी तब से और फिर महसूस किया, मौन से प्रभावशाली तो कुछ भी नहीं हो सकता, शब्द भी असहाय होते हैं! काश ये मौन मेरे शब्दों में समाँ जाये तो,तो शायद मेरे शब्द कुछ मायने रखेंगे!
-आयुषी मोहगांवकर